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ग़म-ए-फ़ुर्क़त की लौ हर लम्हें मद्धम होती जाती है / सरवर आलम राज़ ‘सरवर’

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ग़म-ए-फ़ुर्क़त की लौ हर लम्हे मद्धम होती जाती है
इलाही क्या मिरी दीवानगी कम होती जाती है?

मुहब्बत इम्तिहान-ए-दर्द-ए-पैहम होती जाती है
घुटा जाता है दिल और चश्म-ए-ग़म नम होती जाती है

तुम्हारी हम से जो वाबस्तगी कम होती जाती है
ज़ह-ए-क़िस्मत! ख़ुशी शाइस्ता-ए-ग़म होती जाती है

हयात-ए-बेवफ़ा, ज़ुल्फ़-ए-परिशां, शाम-ए-तन्हाई
मैं सुलझाता हूँ जितना और बरहम होती जाती है

न जाने मोजिज़ा है इश्क़ का या सिर्फ़ धोखा है
वो जितने दूर हों बेगानगी कम होती जाती है

लगा कर आग खु़द अह्ल-ए-चमन आँखें दिखाते हैं
रिवायत इक नयी गुलशन में क़ायम होती जाती है

न तुम बदले, न हम बदले,न तर्ज़-ए-आशिक़ी बदला
शनासाई ग़मों से दिल की बाहम होती जाती है

शिकायत, वो भी शह्र-ए-जौर में?तौबा, मुआज़ल्लाह!
हमारी बेकसी खु़द अपना मरहम होती जाती है

इसी का नाम है मेराज-ए-इश्क़-ए-मुस्तफ़ा ऐ दिल!
कि हर शै नज़्र-ए-सरकार-ए-दो-आलम होती जाती है

कोई काफ़िर-अदा शे’र-ए-मुजस्सम क्या हुआ "सरवर"!
हमारी शायरी हुस्न-ए-मुजस्सम होती जाती है!