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निगाह ख़ुद पे जो डाली तो ये हुआ मालूम / सरवर आलम राज़ ‘सरवर’

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निगाह ख़ुद पे जो डाली तो ये हुआ मालूम
न इब्तिदा की ख़बर है, न इन्तिहा मालूम

सिवाय इसके नहीं कुछ भी बा-ख़ुदा मालूम
हमें तो अपना भी यारो नहीं पता मालूम !

मआल-ए-शिकवा-ए-ग़म, हासिल-ए-दुआ मालूम!
ग़रीब-ए-शहर-ए-वफ़ा का इलाज? ला-मालूम!

ख़िज़ां-गज़ीदा बहारों ने क्या कहा तुझ से?
मआल-ए-गुल नहीं क्या तुझ को ऐ सबा! मालूम?

इक उम्र कट गई उमीद-ओ-ना-मुरादी में
अब इन्तिज़ार है कल का, सो वो भी क्या मालूम!

बस इतना जानते हैं दिल किसी को दे आए
भले-बुरे की ख़बर क्या हमें भला मालूम?

नहीं है कुछ भी तलाश-ए-सुकून से हासिल
मक़ाम-ए-इश्क़ की हम को है हर अदा मालूम!

भले ही तुमको न हो अपने आशिक़ों का पता
हमें है हाल तुम्हारा ज़रा ज़रा मालूम!

पड़ा है सोच में "सरवर" मक़ाम-ए-इब्रत में
ये क्या ग़ज़ब है कि मालूम भी है ना-मालूम!