भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

इलाही! क्यों नहीं जाता है ये मेरे जी का आलम / सरवर आलम राज़ ‘सरवर’

Kavita Kosh से
Mani Gupta (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 11:04, 1 जून 2014 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=सरवर आलम राज़ 'सरवर' |अनुवादक= |संग...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

इलाही क्यों नहीं जाता ये मेरे जी का ग़म?
किसी की याद,किसी का जुनूँ, किसी का ग़म!

करूँ तो क्या करूँ मैं तेरी कज-रवी का ग़म
तुझे ज़रा भी नही मेरी बे-कसी का ग़म!

दलील-ए-राह भी, मंज़िल भी और जरस भी यही
अजीब चीज़ है यारो ये ज़िन्दगी का ग़म!

हम ऐसे मह्व-ए-तमाशा थे ज़ात में अपनी
मिला ना वक़्त कि होता हमें खु़दी का ग़म

हज़ार मरहले इक राह-ए-ज़ीस्त में आए
कभी तो ग़म से ख़ुशी थी कभी ख़ुशी का ग़म!

ये सुब्ह-ओ-शाम की ज़ेहमत!अरे मआज़-अल्लाह!
करूँ न शिकवा अगर हो कभी कभी का ग़म

ये किसने कर दिया सूद-ओ-ज़ियां से बेगाना?
न दोस्ती की ख़लिश है न दुश्मनी का ग़म

फ़राज़-ए-इश्क़-ओ-वफ़ा? ला-इलाह-इल-लल्लाह!
यही कि आदमी को हो तो आदमी का ग़म!

शऊर-ए-ज़ात ने वा कर दिया दर-ए-जानाँ
रही ख़ुदी की तमन्ना, न बेख़ुदी का ग़म

खु़दा-न-ख़्वास्ता "सरवर" तुझे तबाह करे
तलाश-ए-ज़ब्त-ओ-सुकूँ में ख़ुद-आगही का ग़म!