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सूरज धरे चिंगारियाँ / राजेन्द्र गौतम
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ग्रीष्म है,
अब जा चुके बादल सभी
अवकाश पर ।
डाँटती-फटकारती
क्रोधित हवाओं को
खुली छुट्टी मिली
ऐंठ देती बाँह है
प्यासे थके निर्दोष पेड़ों की
सुबकती
मैले-कुचैले चीथड़ों में
बालकों-सी दीखती
धूल से काया अँटी
जलते हुए इन ग्राम-खेड़ों की
ग्रीष्म है,
सूरज धरे चिंगारियाँ
अब घास पर ।
जो उपस्थित ही नहीं
उस ताल से
खिंचती चली जातीं रँभाती धेनुएँ
दौड़ नँगे पाँव
जलती रेत पर
लाता उन्हें है घेर कर
चिलचिलाती धूप
भूखे पेट सूखे होंठ
जब मँगतू पसीने में नहा
पल भर हुआ है
छाँव तक लौटा जिन्हें था टेर कर
ग्रीष्म है,
अब सिर्फ चीलें उड़ रहीं
आकाश पर ।