Last modified on 1 जून 2014, at 20:57

निविदा अख़बारों को दी है / राजेन्द्र गौतम

अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 20:57, 1 जून 2014 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

धारा ऊपर
तैर रहे हैं
सब खादर के गाँव ।

टूटे छप्पर
छितरी छानें
सब आँखों से ओझल
जहाँ झुग्गियों के
कूबड़ थे
अब जल, केवल जल

धँसी कगारें
मुश्किल टिकने
हिम्मत के भी पाँव ।

छुटकी गोदी
सिर पर गठरी
सटा शाख से गात
साँपों के संग
रात कटेगी
शायद ही हो प्रात

क्षीर-सिंधु में
वास मिला है
तारों की है छाँव ।

मौसम की
ख़बरें सुन लेंगे
टी० वी० से कुछ लोग
आश्वासन का
नेता जी भी
चढ़ा गए हैं भोग

निविदा
अख़बारों को दी है
बन जाएगी नाव ।

घास-फूस का
टप्पर शायद
बन भी जाए और
किन्तु कहाँ से
लौटेंगे वे
मरे, बहे जो ढोर

और कहाँ से
दे पाएँगे
साहूकार दाँव ।