दूब के खरगोश बन्दी / राजेन्द्र गौतम
बचा कर भी कहाँ ले जाएँ
हम ये झुलसती कलियाँ
सुलगती आग है अब
झील-तल में या कमल-वन में ।
हुआ सम्बन्ध गहरा
आँधियों से और अब इसका
तवे-सी तप रही जो
जेठ की दोपहर पल-पल है
क्षितिज पर दूर धुँधले में
विवश मण्डरा रही चीलें
न जाने कब गिरे भू
पर थके ये पंख निर्बल हैं
घटाओं के सपन ढोता फिरे
आकाश-बंजारा
रचें पर दग्ध तलवे
रेत की छुवनें, चुभन तन में ।
लिए दो-चार जो गुच्छे चले
थे पीत पुष्पों के
ठहरती आँख में कब तक नमी
उन अमलतासों की
दहकते छन्द लिखतीं
गुलमोहर की शोख डालें हैं
यहाँ तो बाँटती अंगार हैं
शाखें पलाशों की
उड़ा कर गन्ध कस्तूरी
हवाएँ दूर ले जातीं
भटकते झुण्ड हिरणों के
बबूलों से पुरे वन में
उतर कर बरगदों से प्रेत
शर-कांतार में घूमें
युगों से शाप का इतिहास
ढोते दग्ध खादर में
बची इतनी यहाँ बस लाज
निर्वसना नदी की है
सिमटती जा रही वह
बालुका की जीर्ण चादर में
तटों की पीठ पर भी
धूप का आतंक आ पसरा
सिहरती दूब के खरगोश बंदी
प्यास के छल में