भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
चाहता जो परम सुख तू / हनुमानप्रसाद पोद्दार
Kavita Kosh से
Gayatri Gupta (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 16:26, 2 जून 2014 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=हनुमानप्रसाद पोद्दार |अनुवादक= |स...' के साथ नया पन्ना बनाया)
(राग सोहनी)
चाहता जो परम सुख तू, जाप कर हरिनामका।
परम पावन, परम सुन्दर, परम मंगलधामका॥
लिया जिसने है कभी हरि-नाम भय-भ्रम-भूलसे।
तर गया वह भी तुरत, बन्धन कटे जड़-मूलसे॥
हैं सभी पातक पुराने घास सूखेके समान।
भस्म करनेको उन्हें हरिनाम है पावक महान॥
सूर्य उगते ही अँधेरा नाश होता है यथा।
सभी अघ हैं नष्ट होते नामकी स्मृतिसे तथा॥
जाप करते जो चतुर नर सावधानीसे सदा।
वे न बँधते भूलकर यम-पाश दारुणमें कदा॥
बात करते, काम करते, बैठते-उठते समय।
राह चलते नाम लेते बिचरते हैं वे अभय॥
साथ मिलकर प्रेमसे हरिनाम करते गान जो।
मुक्त होते मोहसे कर प्रेम-अमृत पान सो॥