लावा रोज़ झरता है / राजेन्द्र गौतम
सोख कर सम्वेदना का जल
आग का ख़ूनी समन्दर
दू......र तक हुँकार भरता है
चुक गईं सम्भावनाएँ
सब निकल पाने की
दग्ध लपटों के मुहाने से
झुलसना केवल बदा है अब
कुछ नहीं होना अब
व्यर्थ में यों छटपटाने से
जो मछलियों से भरा था कल
ताल जाएगा वही मर
यहाँ लावा रोज झरता है !
सन्दली ठण्डी हवाओं के
काफ़िले को भी
यहाँ रेगिस्तान ने लूटा
इस लिए हर आँख का सपना
चोट खाकर काँच-सा टूटा
बालकों-सा सहमता जंगल
खड़ा लोगों के रहम पर
आरियों से बहुत डरता है !
एक मीठी आँच होती है
अलावों की
बाँटती है जो कि अपनापन
वह लपट पर और होती है
फूल, कलियों, कोंपलों का
लीलती जो तन
पड़े हैं रिश्ते सभी घायल,
जिस्म इनके ख़ून से तर
कौन लेकिन साँस भरता है !