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कहो ना प्रेयस / सुलोचना वर्मा

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कहो ना प्रेयस, क्या करोगे
पढ़कर मेरे ज़िन्दगी की क़िताब
जबकि नहीं पढ़ पाए हो वह ख़त
रखा है जो मेरी पलकों की दहलीज़ पर
बड़े ही सलीके से मैंने एक अरसे से

कहते हो कि गन्ध है मुझमे मेरे गाँव के मिट्टी की
पर नहीं सूँघ पाते हो मेरी देह के मर्तबान को
रखा है जिसमे किसी की यादों का अचार
जो महक उठता है तुम्हारी लफ़्फ़ाजी की धूप पाकर
और कर जाता है खट्टा मेरे बेबस मन का स्वाद

कहो ना प्रेयस, क्या ले पाओगे
मुझसे मेरे असन्तुष्ट शब्दों को
छिड़क पाओगे उनमे सन्तुष्टि का गुलाब-जल
खा पाओगे मर्तबान में पड़े अचार को स्वाद लेकर
भर पाओगे खाली मर्तबान में स्नेह का रूहअफज़ा ?

कहते हो कि बन जाओगे राँझा तुम मेरे प्रेम में
लिख जाओगे अपनी उम्र मेरे नाम खाकर ज़हर
जबकि मेरी ज़िन्दगी को घेर रखा है मुसीबतों के पहाड़ ने
और दरकार है इसे किसी दशरथ माँझी जैसे की
जो करे हौसले से घनिष्टता, ढाए मुसीबतों पर कहर

कहो ना प्रेयस, बन पाओगे वटवृक्ष
जिस पर रेंगे मेरे प्रेम की तरुवल्लरी
मान पाओगे कि फिर भी मेरा अपना है आस्तित्व
क्या जानते हो नहीं रखूँगी व्रत वट-सावित्री का मैं
क्या समझ पाओगे इस रूप में तुम मेरा स्त्रीत्व

कहते हो कि नहीं समझ आती है मुझे प्रेम की भाषा
दिखलाना चाहते हो प्रेम का सुन्दर प्रतीक ताजमहल
जबकि सुलग रही हूँ कब से मैं जीवन की अँगीठी पर
रूह का तवा जहाँ हो चुका है जलते-जलते लाल
और कसैला हो चुका है जुबान के ताम्रपात्र में रखा जल

कहो ना प्रेयस, सावन बन पाओगे
बरस पाओगे मेरे अन्तस की सुखी धरती पर
माँज पाओगे जतन से मेरे रूह का लाल तवा
बदल पाओगे मेरी जुबान की तासीर
मेरी परवाह के साथ समय के नीम्बू सत्व से

कहो ना प्रेयस, प्रेयस बने रहोगे
यह जानकर कि नहीं आसान होता
प्रेयसी के मन की क़िताब को पढ़ना
पढ़ते रहना और प्रेयस बने रहना
जीवन के अनन्त वसन्त के उस पार