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मूर्त्तिपूजा / त्रिलोचन

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वाराहावतार की प्रतिमा औंडिहार में

देखी जलौघमग्ना सचराचरा धरा की
करूण मूर्त्ती मन में लहराई । विपद वराकी

को क्या सहनी पड़ी । उसी के समुद्धार में

लग्न देव मुद्रा तक्षित थी । नराकार में

आगे-पीछे सुदृढ़ चरण, कर स्वयं त्वरा की
अभिव्यक्ति थे, स्फूर्तिमयी थी परम्परा की

यह छवि । सब कुछ का संमूर्तन था उभार में ।


आए कुछ ग्रामीण, नत हुए और बजाया

भक्तिभाव से घंटा । बात किसी ने पूछी,
"कौन देवता हैं ये ।" "बात कहूंगा आगे,"

कह कर वयोवृद्ध डगरा; उन को डगराया ।

मैं ने देखा प्रणति भक्ति दोनों हैं छूछी ।

इनमें भाव कहाँ जो मूर्त्तिकार में जागे ।