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1.अर्चन–आराधन

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1
मन मोहन !
तुम श्याम बरन
इन्दीवर लोचन,
पीत वसन
वैजयन्ती-धारण
चिर आनन्द–घन।
2
ब्रज नन्दन !
बंकिम चितवन
लूटे सबका मन,
लगी लगन
दौड़ीं प्रेम–मगन
गोपियाँ ‘निधिवन’।
3
वंशी वादन
तरु कदम्ब घन
राधिका से मिलन,
पुलके तन
रोम–रोम कम्पन
अंशी–अंश मिलन।
4
कर नर्तन
जो फूत्कारित फण
रे ! कालिय मर्दन,
किया शमन
आर्त्त गोपी–क्रन्दन
विलाप व रुदन।
5
इन्द्र दमन !
उठा के गोवर्द्धन
किया मान–दहन,
गो–संवर्द्धन
प्रमुदित आनन
शैशव था यौवन।
6
चीर–हरण
चोरी दधि माखन
महारास नर्तन,
लीला नूतन
रस–मोद–मयन
शत तुम्हें नमन !

7
मन रंजन !
ग्वाल–बाल रमण
तुम चिर–शोभन,
जन के मन
बन के जनार्दन
बदली लोकायन।
8
पर्यावरण
मयूर व हिरण
सतत आरक्षण
तुलसी–वन
तरु कुंज सघन
हरियाए पाहन।
9
प्रजा–दोहन
अत्याचार गहन
धर्म का आलोपन,
शत्रु–हनन
गोकुल से गमन
लिखी मथुरायन।
10
कस–पतन
नित मूल्य–क्षरण
कन्या–हत्या कारण,
विजयी बन
उग्रसेन–चरण
तब किया वन्दन !
11
ओ कान्हा ! सुन !
सूना है वृन्दावन
गोपेश ! तेरे बिन
केकी कूजन
मधुकर–गुंजन
भूला है मधुबन।
12
साश्रु–नयन
राधिका तो उन्मन
मलिन हैं वसन
झरे सुमन
सूखे कमल–वन
कहाँ हृदय–घन?
13
पाषाण–मन
ज्ञान–गर्व खण्डन
उद्धव ब्रज–गमन
गोपिका–धन
‘भक्ति’ में विलयन
कृष्ण में समापन।
14
रिपु–दलन !
जरासन–जलन
मथुरा आक्रमण
युद्ध–वहन
कम्पित हुआ मन
जन–शक्ति हनन।
15
कर्त्तव्य–धन !
किया था पलायन
द्वारका को गमन
हर्षित मन
‘रणछोड़’ कथन
उपालम्भ वहन !
16
नीति कथन
सद्धर्म विजयन
पाचजन्य नादन
स्वीकारा मन
प्रिय सखा अजु‍र्न–
का रथ–संचालन।
17
मृत्यु–तरण
अधर्मी दुर्योधन
व पापी दु:शासन
यही शिक्षण :
‘कर्म परिसीमन
न हो अतिक्रमण’।
18
योगी कृष्णन !
मोहान भक्तजन
गीता का प्रवचन
द्वन्द्व–हरण
विश्वरूप दर्शन
मुक्ति कर्म–बनन।
19

प्रवासी मन
मथुरा या द्वारका
रहे अतिथि बन
तन था दूर
मन से सदा रमे
गोकुल–वृन्दावन।
20
चिर–स्मरण
बाल–सखी राधा का
अपूर्व सम्मोहन
प्राण–स्पन्दन
सतत बँधा मन
करता आराधन।
21
भालुका–वन
तरु–तले विश्राम
‘जरा’ ने मारा बाण
ओ प्रेम–तीर्थ !
रोम–रोम में राधा
मूँद लिये नयन।
22
मिटी तपन
हर पल जलन
वियोग की अगन
अंतिम क्षण
पूरा किया वचन
हुआ चिर–मिलन !
23
राधे मोहन !
अर्चन–आराधन
वन्दन–नीराजन
एक लगन–
रोम–रोम क्रन्दन–
काटो भव– बन्धन !
24
अभिनन्दन !
पखारूँ मैं चरण
नित यही याचन,
छोड़ ये तन,
जब करूँ गमन
साँसों हों नारायण।
25
प्रीत की डोरी
बाँध गई मन को
खिंची–खिंची जाऊँ मैं
पाँव जंजीर
मीरा की दीवानगी
जोगी ! कहाँ पाऊँ मैं ?
26
वशीकरण
कैसा तो सम्मोहन
उस एक दृष्टि में
नहला गई
भीगा है रोम–रोम
स्नेह–सुधा- वृष्टि में !
27
एक भरोसा
बस, एक विश्वास
लिये आतुर प्यास
बैठा चातक
त्याग धरा का जल
स्वाति–बिन्दु की आस।
28
मेरे मोहन !
जो सुर उठाए तू
वही बजाऊँ मैं तो
आठों ही याम
‘राधे ’ ‘राधे’ पुकारे
बाँसुरी अविराम।
29
पिया रिझाए
श्रावणी की कामिनी
लहराएँ घटाएँ
यमुना–तट
बज उठी बाँसुरी
हुई राधा बावरी !
30
निशा–मिलन
बाँसुरी छूट गई
राधिका–शय्या पर
अगली भोर
योग माया बिराजी
हर तकिये–नीचे !
31
वो भीत मृगी
एकवस्त्रा दौपदी
भेडि़यों–बीच घिरी
कृष्ण मुरारे !
आर्त्त भक्त पुकारे
कौन सिवा तुम्हारे ?
32
दौपदी –सखा !
बिना कहे समझे
सदा उसकी व्यथा
मन पुकारा :
दौड़ पड़े तुरन्त
विपदा से उबारा।
-0-