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खेजड़ी / कन्हैया लाल सेठिया
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खेजड़ी, रूत आयां पांघरसी
छांग्यो लूंग टाटड्यां तांई
नागी बूची कर दी,
लाज लूंट ली आं निमल्यां री
लूंठां जोरांमरदी,
भर्यै सियाळै डांफर पाळै
साव उधाड़ी ठरसी।
खेजड़ी, रूत आयां पांघरसी।
बै तपता बैसाख जेठ रा
महीनां मिनख भुलाया,
सावणियै रा सपनां देख्या
ईं री ठंडी छांयां,
पण कुदरत दातार, बापड़ी
फेर फूलसी फळसी।
खेजड़ी रूत आयां पांघरसी।
कूर कुंआड़ी रै के लागै
देखै काची पाकी ?
खुद रै कुळ नै विणसै लारै
लाग्यो डांडो डाकी,
घर रै भेदू बिनां काम अै
दूजो कुण कर सकसी ?
खेजड़ी, रूत आयंा पांघरसी।