भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
जुग री गंगा / कन्हैया लाल सेठिया
Kavita Kosh से
आशिष पुरोहित (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 23:38, 16 जून 2014 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=कन्हैया लाल सेठिया |संग्रह=मींझर ...' के साथ नया पन्ना बनाया)
थारै फळसै बारै जुग री
गंगाजी लैरावै,
झाटो खोल जमीं रा जाया
झालो दे’र बुलावै।
रावळियां रो राज आज तो
परबत गया पताळां,
आभै री के गरज भौम नै
पाटी नाळां खाळां
आज पून रै सागै फसलां
ऊंभी नाचै गावै,
थारै फळसै बारै जुग री
गंगाजी लैरावै,
गयो जमानो जद पड़ता हा
चळू चळू रा फोड़ा,
हूंता भाज तिसाया मरता
हिरण बापड़ा खोड़ा,
पग पग पाणी डग डग रोटी
सुरग सांकड़ो आवै,
थारै फळसै बारै जुग री
गंगाजी लैरावै।
रळा पसीनूं ईं रै सागै
समदर बेगी पूगै,
चला फावड़ो मार कुदाळी
अब के पड्यो अलूंघै ?
कुदरत देसी साथ भायला
जे तूं हाथ हलावै,
थारै फळसै बारै जुग री
गंगाजी लैरावै।