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स्त्री बनने के बाद / राजेश्वर वशिष्ठ

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जैसे दिया जूझता है हवा के झोंके से
किसान लड़ता है टिड्डियों के हमले से
बच्चा निपटाना चाहता है अपना होमवर्क
सूरज तैरता है बादलों की नदी में
उम्र के इस पड़ाव पर
स्त्री जूझती है अपने ही शरीर से

उसे बार बार होता है कमर-दर्द
नहीं ठहरती आँखों में नींद
थका-थका सा रहता है पूरा शरीर
दुखते हैं पावों के तलवे
खिन्न-सा रहता है मन
बहुत कम लगती है भूख
मानो कल ही आई हो शुक्र ग्रह से
और यात्रा में ही गुज़रे हों
जीवन के पूरे चालीस वर्ष

कोई नहीं पूछता उसके माईग्रेन का हाल
स्पॉन्डिलाईटिस से जूझते हुए भी
वह करती है किचन के सारे काम
उसे फ़िक्र रहती है बेटे की भूख की
पति के इस्त्री किए हुए कपड़ों को
अलमारी से निकाल कर लटकाती है
इस तरह कि नहाने के बाद
ज़रा भी न पड़े खोजने

बहू, पत्नी और माँ होकर भी
अपनी लड़ाई में सदा रहती है अकेली
दाधीचि-सी तर्पण करती है
अपनी अस्थियाँ दूसरों की हिफाज़त के लिए
उसकी छाती पर तमगों-सी सजी रहती हैं
ये सभी सम्मान सूचक सँज्ञाएँ

जैसे जूझता है कुम्हार मिट्टी से
उसके हाथों का स्पर्श बीन लेता है सारी कँकड़ें
एकाकार कर देता है मिट्टी और जल की आत्मा
घूमते हुए चाक पर सृष्टि रचने से पहले
वैसे ही हर रोज़
दर्द और पीड़ाओं को
मुस्कुराहट की झीनी थैली में समेट
औरों का जीवन चलाने के लिए निर्बाध
स्त्री जूझती है अपने ही शरीर से

पसीने के गरम भभकों के बीच
वह सोचती है बार बार मीनोपॉज़ के बारे में
काँप जाता है शरीर और मन
परिवार देखता रहता है कोई डेली-शो
और विलीन हो जाती है स्त्री
दूध में चीनी की तरह

वह जानना चाहती है
स्त्री बनने के बाद
क्या कुछ और भी बनती है स्त्री ।