दोस्तों गजब हुआ, यह अल्लसवेरे...
मैंने पढ़ी एक कविता स्त्रियों के बारे में ।
कविता थी पर सच-सा उसका बयान था,
कविता सोई हुई स्त्रियों के बारे में थी ।
सोए हुए के बारे में बात करना अक्सर आसान होता है
क्योंकि एक स्वतन्त्रता-सी रहती है
कथ्य बयानी में,
पता नहीं कवि को इसका कितना ध्यान था
पर कविता में नींद का सुन्दर रुमान था ।
बात सोए होने की थी
समय सुबह का था
अचरज नहीं कविता में एक स्वप्न का भान था ।
मैं पढ़कर चकित होता था
पर यह तय नहीं था कि मैं जगा था ।
सुबह-सवेरे देखे गए सपने की तरह
कविता का अहसास मेरे मन में है
पर सोचकर यह बार-बार बेचैन होता हूँ --
सोई हुई स्त्री जब कविता में आती है
तो क्या उसकी नींद टूट जाती है ?