Last modified on 19 जून 2014, at 11:27

सोई हुई स्त्री, कविता में / राकेश रोहित

अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 11:27, 19 जून 2014 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=राकेश रोहित |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCat...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

दोस्तों गजब हुआ, यह अल्लसवेरे...
मैंने पढ़ी एक कविता स्त्रियों के बारे में ।
कविता थी पर सच-सा उसका बयान था,
कविता सोई हुई स्त्रियों के बारे में थी ।

सोए हुए के बारे में बात करना अक्सर आसान होता है
क्योंकि एक स्वतन्त्रता-सी रहती है
कथ्य बयानी में,
पता नहीं कवि को इसका कितना ध्यान था
पर कविता में नींद का सुन्दर रुमान था ।

बात सोए होने की थी
समय सुबह का था
अचरज नहीं कविता में एक स्वप्न का भान था ।
मैं पढ़कर चकित होता था
पर यह तय नहीं था कि मैं जगा था ।

सुबह-सवेरे देखे गए सपने की तरह
कविता का अहसास मेरे मन में है
पर सोचकर यह बार-बार बेचैन होता हूँ --
सोई हुई स्त्री जब कविता में आती है
तो क्या उसकी नींद टूट जाती है ?