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कवियों के संकट / शिरीष कुमार मौर्य

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मैं राह में हूँ
बरसों से लिखता चला आ रहा कविता
पन्‍ने तक आते-आते चुक गया
शब्‍द छूट गए राह में ही
वही सही जगह थी उनके लिए
दुबारा गुज़रूँगा उधर से तो मिल जाएँगे ऐसा कहना भी
महज एक आशावाद है
मैं अकेला राही नहीं हूँ
भीड़ और हलचल थी राह पर
वहाँ कुछ बिम्‍बों ने हक़ीक़त को शर्मिन्‍दा किया है
वे अहंकारी हैं
उनके कवि बड़े कहाए गए
दु:ख और क्रोध को लिखने वाला शिल्‍प भाषा में दम तोड़ गया तो
कविता की महानता सधी
अब राह में छूटे शब्‍द कवियों को नहीं
गाड़ियों से बिदक कर घास चरते डंगरों
उनके नामालूम-से
रखवालों
और उन गुज़रने वालों को मिलते हैं
जिन्‍हें अनदेखा किया कविता ने
अब तक
कविता गढ़ी नहीं जाती
मूर्तियाँ गढ़ी जाती हैं
शिखर पर हो कला तो बोलती हुई-सी लगती हैं वे
पर कविता को बोलता हुआ-सा नहीं
बोलता हुआ होना पड़ता है
और सिर्फ़ बोलने का नहीं
उससे पुकारने का भी काम पड़ता है
पुकारने की आवाज़ अब कविता में नहीं
बाहर आती है
लिखे हुए शब्‍दों से आवाज़ चली गई है
और ये सब कविता के नहीं
बड़बोले कवियों के संकट हैं
कविता और जीवन की
संघर्षों से पूरित राह पर नहीं
अगर हैं
तो कवियों के अपने हाथों में बेमतलब के कंटक हैं