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समुद्र निहारते हुए / प्रेमशंकर शुक्ल

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इन्‍हीं लहरों से
बनी हैं
आँख मेरी


शायद इसी से
देखते सागर
उमड़ती जा रहीं ये
फैलती भी जा रहीं


जिनमें समाता आ रहा
विस्‍तार सागर का