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चट्टान की सन्‍तान / प्रेमशंकर शुक्ल

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चट्टान की सन्‍तान
वह ढलुआ पत्‍थर
अपने चेहरे पर लादे हुए है
कितने समयों का बोझ

बड़ी झील ! तुम्‍हारे जुड़वाँ किनारों को
वह पत्‍थर पानी के साथ रहने का
अपना अनुभव बाँटता रहता है

यह बात केवल पानी को पता है
कि कैसे वह पत्‍थर
हर बरस अपने को कुछ पानी करता जाता है
इसीलिए अक्‍सर पानी पीते हुए
हमारे कण्ठ से फूट पड़ता है
उस पत्‍थर का दरद

उसी आयतन के साथ इस दरद को
कविता में रूपान्‍तरित करना
बहुत कठिन है बड़ी झील

कवि विफलता का कारोबार करता है !