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अपने अन्तर का ख़ालीपन / नेमिचन्द्र जैन

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अपने अन्तर का ख़ालीपन तेरे सुधि-सौरभ से भर लूँ

एककी मन पर तेरी छबि धीमे-धीमे अंकित कर लूँ

एक सहज ममता की छाया में मैं अपने प्राण बिछा दूँ

तेरे ही आकर्षण में अपना उद्धत अभिमान सुला दूँ ।


यह एकान्त अभेद अन्धेरे-सा मन पर घिरता आता है

जी का सब विश्वास अचानक ही मानो गिरता जाता है

घोर विवशता के मरु में ये भटक पड़े हैं प्राण अकेले

आज नहीं कोई जो मेरे मन की यह दुर्बलता झेले ।


शान्त हो गई है चुप हो कर मन की जो आहत पुकार थी

मन्द हो गई बुझती जी की ज्वाला वह जो दुर्निवार थी

एक रिक्त बस--प्राणों के इस तरु पर आ छाया है हिम-सा

सुधि का दीप दूर एकाकी होता जाता है मद्धिम-सा ।


मेरे अन्तर का रहस्य मुझ को ही आकर कौन बताए

कौन बिखरते-से प्राणों में जीवन का जादू भर जाए

मेरे पथदर्शक, खोलूँ कैसे ये उलझी गाँठें मन की

बोलो, कैसे जोड़ूँ बिखरी कड़ियाँ इस खुलते बन्धन की ।


(1941 में शुजालपुर में रचित)