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कवि गाता है / नेमिचन्द्र जैन

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कवि गाता है--

संक्रान्ति काल का कलाकार कवि गाता है ।

देख चांदनी रातें कवि का नाच उठा उर

स्वप्न-देश की परियों के गायन से

उस का गूँज उठा स्वर,

आधी मुंदी हुई पलकों में

मदिरा-सा किस छबि का मीठा भार लिए,

वह बेसुध-सा है;

उस के नयनों में झूल रही किस रूपपरी की सघन याद

उस के मन में कितनी पीड़ा, उस के मन में कितना विषाद !

और तभी वह गा उठता है

गीले गाने,

असफलता के, प्यार-प्रीति के, अपने दुख के--

कुछ बेमाने, कुछ अनजाने ।

फूट उठा है उस का उर

वह गाता है,

संक्रान्ति काल का

पीड़ित मानवता के युग का कलाकार कवि--

गाता है ।


कभी यहाँ आते हैं कोई बड़े राज्य के राजा साहब

कितने दानी !

कभी प्रान्त के आते हैं सरकारी अफ़सर,

या कोई जनता के लीडर

जो होते हैं सभी कला-कविता के प्रेमी--

कितने ज्ञानी !

उन सब के स्वागत में

जब-तब

किसी सेठ के घर होती ही रहती है

दावत-मेहमानी ।

कवि भी आमन्त्रित होता है,

वह भी आए;

राजा साहब, अफ़सर या जनता के लीडर--

(या वह जो हों !)--

के स्वागत में गीत बनाकर लाए, गाए,

और काव्य के चमत्कार से मेहमानों का दिल बहलाए ।

आमन्त्रण की गुरुता से ही

सहज गर्व से

फूल-फूल उठती है तब उस कवि की छाती--

गदगद हो कर गा उठता है कवि

तब राजा और सेठ की स्तुति के गायन ।

गाता है वह कलाकार

जब बाहर दुनिया में फैली घनघोर विषमता,

दिशी-दिशी से उठ रहा भयानक चीत्कार

उस को तो है बस अपने सपनों से ममता--

वह कलाकार ।

क्या परवाह उस को,

एक ओर भूखे मरते लाखों प्राणी

वह दिव्य-दृष्टि से देख रहा उस की तो युग-युग की वाणी

उस के स्वर में है बोल रही देवी सरस्वती कल्याणी ।


कवि द्रष्टा है

जीवन के पीछे छिपे हुए अज्ञात तत्त्व का ।

मानवता के अमर चिरन्तन नियमों का

कवि सृष्टा है ।


वह क्यों गाए

इस वर्तमान के

अति कुत्सित बीभत्स अंधेरे के

जड़ता के,

काले-काले क्रुद्ध गीत

जब देख रहे उसके अधमुंदे नयन

क्षितिज के पार, दूर

गरिमा के गौरव से मण्डित स्वर्णिम अतीत ।


वह गाता है--

षोडशवर्षीया सुकुमारी

बड़े-बड़े महलों में रहने वाली सुन्दर राजकुमारी

की प्रशस्ति में--

(राजमहल वे

जिन की गहरी नीवों पर बलिदान हो गए

भूखे नरकंकाल अस्थिपंजर जैसे लाखों मजूर,

जिन के गरम रक्त से सिंचित

राजमहल यों छाती ताने आज खड़े हैं ।)

रूप और वैभव की मदिरा में विभोर

कवि गाता है

अतृप्त यौवन के, लिप्सा के

गीले-गीले गलित गीत ।

मृत्युशीत !


कवि गाता है

वह कलाकार है ।

व्याकुल मानवता की संस्कृति की रक्षा का

उस के ऊपर आज भार है

भूत-भविष्यत-वर्तमान को

देख रहा वह आर-पार है ।

वह ईश्वर है

वह ज्ञाता है,

दानवता से रौंदे जाते मनुष्यत्व का प्रतिनिधि है

वह कलाकार जो गाता है,

जो केवल गाता है--!


(1940 में आगरा में रचित)