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जन्मशतियों के मौसम में / शुभम श्री

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जन्मशतियाँ मनाने का मौसम है आजकल
गोष्ठियाँ आयोजित करने का सरकारी समय
चिन्ता मत करो, ज़रूर मिलेगा अनुदान
किसी अकादमी में जगह कोई
दर्जन भर सेमिनारों में जा कर
ज़रूर ख़त्म होगा दुःख
हर महीने की तकलीफ़देह जी०पी०एफ़०-इनकम टैक्स का

दोस्ती-दुश्मनी का पुराना हिसाब-किताब
सौवें साल में ही कर लो बराबर
(क्योंकि तुम्हारे शतायु साहित्यकार की भाषा विलुप्ति के कगार पर है !)

सच में बहुत मेहनत की तुमने यार !
अफ़सोस
सैकड़ों पत्रिकाओं के हज़ारों पन्नों में संस्मरण रँगने के बावजूद
नहीं कर पा रहे हो अमर

मरे हुए शब्द

तुम भूल जाते हो कि तुम्हारी बात समझनेवाले
बच्चों का साइन्स जर्नल ख़रीदना ज़्यादा ज़रूरी समझते है !

मत लिखो अमर कविताएँ...शाश्वत साहित्य
सरस सलिल में छापो कुछ आवारा शब्द

भरोसा रखो

ये जन्मशतियाँ
तुम्हारे वातानुकूलित सेमिनार-रूमों से निकलने को छटपटा रही हैं
बरिस्ता में नहीं लहराएगा साहित्य का परचम

ऑक्सीजन मिलेगा उसे
अभी-अभी प्रखण्ड से सब-डिविजन बन कर ख़ुश शहर के गलीज नुक्कड़ों पर

कहोगे कि तुम अनुभवी हो और हम हैं नादान
लेकिन नहीं जानते तुम

तुम्हारे अनुभवों का असर ये है
कि सरेआम कविताएँ पढ़ते हुए

हम झेलने को मजबूर हैं
किसी चिकलिट की व्यंग्य भरी मुस्कान

सभागारों से बाहर निकलो और देखो हमारी हालत
हज़ारों सपने लिए समानधर्मा बनने आई नई पीढ़ी की

सौ साल बाद

अपने अपने कॉलेजों में चन्द अटेण्डेन्स की ख़ातिर
दिन भर तुम्हारा विमर्श सुनते अपना मैसेज पैक ख़त्म करते हम

परीक्षा में कोट करने को लिख चुके हैं तुम्हारे दो चार जुमले
अपने सतही आशावाद के साथ

तुम्हारा ख़ुश होना
हमें 'फ़नी' लग रहा है

फिर भी सुन रहे हैं तुम्हारा 'आह्वान' !

कहोगे कि हम बिलकुल भरोसे के लायक नहीं
सच...बिलकुल सच

हर सेमिनार में बदलती तुम्हारी प्रतिबद्धता ने
हमें भी बना दिया है
धोखेबाज़

मत बोलो इतने झूठ लगातार

तुम्हारा ख़ुश होना
हमें 'फ़नी' लग रहा है

फिर भी सुन रहे हैं तुम्हारा 'आह्वान'
कहोगे कि हम बिलकुल भरोसे के लायक नहीं

सच...बिलकुल सच
हर सेमिनार में बदलती तुम्हरी प्रतिबद्धता ने

हमें भी बना दिया है
धोखेबाज़

मत बोलो इतने झूठ लगातार
अब भी तो कुछ सोचो

पेंगुइन से एक अँग्रेज़ी अनुवाद की तुम्हारी ख़्वाहिश के चलते
अपनी पहचान बदलने पर तुले हैं साहित्य के छात्र

क्यों नहीं जाते
उन राजकीय उच्चविद्यालयों में

बड़ी मुश्किल से इस्तरी किए कपड़ों में
इन्तज़ार कर रही हैं जहाँ

उम्मीद की कई किरणें
जाओ ना...

पुनश्च : पहले तुम निबट लो जन्मशती से, अपना कवि चुन कर

हम अपने कवि चुन लेंगे...

कविताएँ चन्द नम्बरों की मोहताज हैं, भावनाओं की नहीं

भावुक होना शर्म की बात है आजकल और कविताओं को दिल से पढ़ना बेवकूफ़ी
शायद हमारा बचपना है या नादानी

कि साहित्य हमें ज़िन्दगी लगता है और लिखे हुए शब्द साँस
कितना बड़ा मज़ाक है

कि परीक्षाओं की तमाम औपचारिकताओं के बावजूद
हमे साहित्य साहित्य ही लगता है, प्रश्न पत्र नहीं

ख़ूबसूरती का हमारे आस-पास बुना ये यूटोपिया टूटता भी तो नहीं !
हमे क्यों समझ नहीं आता कि कोई ख़ूबसूरती नहीं है उन कविताओं में
जो हमने पढ़ी थीं बेहद संजीदा हो कर
कई दिनों तक पाग़लपन छाया रहा था
अनगिनत बहसें हुई थीं

सब झूठ था

हमारा प्यार...हमारा गुस्सा...हमारे वो दोस्त, उनके शब्द...
क्योंकि तीन घण्टे तक बैठ कर नीरस शब्दों में देना पड़ेगा मुझे बयान

अजनबियों की तरह हुलिया बताना पड़ेगा उन तीस पन्नों में
मेरे इतने पास के लोगों का

नहीं कह सकती

कि नागार्जुन ने जब लिखा शेफ़ालिका के फूलों का झरना
तो झरा था आँख से एक बूँद आँसू

नहीं बता सकती कि धूमिल से कितना प्यार है
कितना गुस्सा है मुझे भी रघुवीर सहाय की तरह


नागार्जुन-धूमिल-सर्वेश्वर-रघुवीर
सिर्फ़ आठ नम्बर के सवाल हैं !

कैसी मजबूरी है कि उनकी बेहिसाब आत्मीयता का अन्तिम लक्ष्य
छह नम्बर पाने की कोशिश है !

न चाहते हुए भी करना पड़ेगा ऐसा
क्योंकि शब्दों से प्यार करना मुझे सुकून देगा और चन्द पन्नों के ये बयान "कैरियर"