भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
नीम तले (नवगीत) / 'सज्जन' धर्मेन्द्र
Kavita Kosh से
Dkspoet (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 16:13, 5 जुलाई 2014 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार='सज्जन' धर्मेन्द्र |संग्रह= }} {{KKCatNavgeet...' के साथ नया पन्ना बनाया)
नीम तले सब ताश खेलते
रोज सुबह से शाम
कई महीनों बाद मिला है
खेतों को आराम
फिर पत्तों के चक्रव्यूह में
धूप गई है हार
कुंद कर दिए वीर प्याज ने
लू के सब हथियार
ढाल पुदीने सँग बन बैठे
भुनकर कच्चे आम
शहर गया है गाँव देखने
बड़े दिनों के बाद
समय पुराना नए वक्त से
मिला महीनों बाद
फिर से महक उठे आँगन में
रोटी बोटी जाम
छत पर जाकर रात सो गई
खुले रेशमी बाल
भोर हुई सूरज ने आकर
छुए गुलाबी गाल
बोली छत पर लाज न आती
तुमको बुद्धू राम