एक रजैया बीवी-बच्चे
एक रजैया मैं
खटते हुए ज़िन्दगी बोली--
हो गया हुलिया टैं
जब से आया शहर
गाँव को बड़े-बड़े अफ़सोस
माँ-बहनें-परिवार घेर-घर लगते सौ-सौ कोस
सड़कों पर चढ़/ पगडण्डी की
बोल न पाया जै
बनकर बाबू बुझे
न जाने कहाँ गई वो आग
कूद-कबड्डी गिल्ली-बल्ला कजली-होली-फाग
आल्हा-ऊदल भूले/ भूली
रामायन बरवै
पढ़ना-लिखना निखद
निखद या पढ़े-लिखों का सोच
गाँव शहर आकर हो जाता कितना-कितना पोच
राई के परबत-से लगते
छोटे-छोटे भै !
(रचनाकाल : 01.11.1978)