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एक रजैया बीवी-बच्चे / रामकुमार कृषक

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एक रजैया बीवी-बच्चे

एक रजैया मैं

खटते हुए ज़िन्दगी बोली--

हो गया हुलिया टैं


जब से आया शहर

गाँव को बड़े-बड़े अफ़सोस

माँ-बहनें-परिवार घेर-घर लगते सौ-सौ कोस

सड़कों पर चढ़/ पगडण्डी की

बोल न पाया जै


बनकर बाबू बुझे

न जाने कहाँ गई वो आग

कूद-कबड्डी गिल्ली-बल्ला कजली-होली-फाग

आल्हा-ऊदल भूले/ भूली

रामायन बरवै


पढ़ना-लिखना निखद

निखद या पढ़े-लिखों का सोच

गाँव शहर आकर हो जाता कितना-कितना पोच

राई के परबत-से लगते

छोटे-छोटे भै !



(रचनाकाल : 01.11.1978)