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करूँ क्या / रमानाथ अवस्थी
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सुर सब बेसुरे हुए करूँ क्या ?
उतरे हुए सभी के मुखड़े
सबके पाँव लक्ष्य से उखड़े
उखड़ी हुई भ्रष्ट पीढ़ी से
विजय-वरण के लिए कहूँ क्या ?
सागर निकले ताल सरीखे
अन्धों को कब आँसू दीखे
अन्धों की महफ़िल में आँसू
जैसी उजली मौत मरूँ क्या ?
झूठी सत्ता की मरीचिका
आत्मभ्रष्ट कर रही जीविका
बौनों की बस्ती में बोलो
ऊँचे क़द की बात करूँ क्या ?