भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

सियासी लीडर के नाम / फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 03:40, 8 जुलाई 2014 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

सालहा-साल ये बे-आसरा, जकड़े हुए हाथ
रात के सख़्तो-सियह सीने में पैवस्त रहे
जिस तरह तिनका समन्दर से हो सरगर्मे-सितेज़<ref>संघर्षरत</ref>
जिस तरह तीतरी कुहसार<ref>पहाड़</ref> पे यलग़ार<ref>हमला</ref> करे
और अब रात के संगीनो-सियह सीने में
इतने घाव हैं कि जिस सिम्त नज़र जाती है
जा-ब-जा नूर ने इक जाल-सा बुन रक्खा है
दूर से सुब्‍ह की धड़कन की सदा आती है
तेरा सरमायः, तिरी आस यही हाथ तो हैं
और कुछ भी तो नहीं पास, यही हाथ तो हैं
तुझको मंज़ूर नहीं ग़ल्बः-ए-ज़ुल्मत<ref>अन्धेरे का प्रभुत्त्व</ref> लेकिन
तुझको मंज़ूर है ये हाथ क़लम हो जाएँ
और मशरिक़<ref>पूरब</ref> की कमींगह<ref>शिकार की ताक में छिपकर बैठने की जगह</ref> में धड़कता हुआ दिन
रात की आहनी मय्यत<ref>लाश</ref> के तले दब जाए

शब्दार्थ
<references/>