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कुहरे में भोपाल / त्रिलोचन
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कुहरा ही कुहरा है । इस कुहरे का चलना,
फिरना साफ़ झलक जाता है । घना घना है
इस सफ़ेद चादर का पवन वेग से टलना,
बार बार दिखता है । कितना रम्य बना है,
सूरज का उगना । पूरब के क्षितिज पर दिखी
उषा । पेड़ कुहरे में खोए हैं । पहाड़ियाँ
कहाँ 'अरेरा' कहाँ 'श्यामला'; भूमि पर लिखी
हरियाली के साथ छिपी हैं विरल झाड़ियाँ ।
ठंडक जैसी भी हो, टहला जा सकता है
बड़े मज़े से । सड़कों पर भी कुहरा छाया
है । भोपाल रूप क्या ऎसा पा सकता है
जब चाहे, पुल पास बान गंगा का आया ।
कुहरे का घाटी से उठ-उठ कर लहराना
सर्दी का है अपनी विजय-ध्वज फहराना ।