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ऋतुराज एक पल का. / बुद्धिनाथ मिश्र

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राजमिस्त्री से हुई क्या चूक, गारे में
बीज को संबल मिला रजकण तथा जल का ।
तोड़कर पहरे कड़े पाबन्दियों के आज
उग गया है एक नन्हा गाछ पीपल का ।

        चाय की दो पत्तियोंवाली
        फुनगियों ने पुकारा
        शैल-उर से फूटकर उमड़ी
        दमित-सी स्नेह-धारा ।
        एक छोटी-सी जुही की कली
        मेरे हाथ आई
        और पूरी देह, आदम
        ख़ुशबुओं से महमहाई ।


वनपलाशी आग के झरने नहाकर हम
इस तरह भीगे कि ख़ुद जी हो गया हलका ।

        मूक थे दोनों, मुखर थी
        देह की भाषा
        कर गया जादू ज़ुबां पर
        गोगिया पाशा
        लाख आँखें हों मुँदी --
        सपने खुले बाँटे
        वह समर्पण फूल का
        ऐसा, झुके काँटे


क्या हुआ जो धूप में तपता रहा सदियों
ग्रीष्म पर भारी पड़ा ऋतुराज इक पल का ।

शब्दार्थ :
गोगिया पाशा= देहरादून का एक प्रसिद्ध जादूगर

(रचनाकाल : 15.02.2002)