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रिश्ता भींग गया / बुद्धिनाथ मिश्र

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साथ चले जब एक राह पर
दोनों सूखे थे
तय करते दूरियाँ दुबारा
रिश्ता भींग गया ।

क़दम दो क़दम तक थी
केवल बातें ही बातें
रुई हाथ में, सोच रहे
कैसे तकली कातें ।

लोगों की टोकाटाकी से
बच-बचकर चलते
पहुँचे जोड़ा ताल
कि कोरा रिश्ता भींग गया ।

कभी-कभी गहरी साँसें भी
घनी छाँह देतीं
कौए की ममता कोयल के
अण्डे है सेती ।

पथ की धूल पाँव से सिर तक
चढ़ी सोनपाँखी
बादल हुआ पसीना
सारा रिश्ता भींग गया ।

तन की रीत गाँव में मन के
झूठी लगती है
चोरी की खट्टी अमिया भी
मीठी लगती है ।

पार कर गया मरुथल
लेकर सपना सागर का
पानी के कोड़ों का मारा
रिश्ता भींग गया ।