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पर्वत पर खिला बुराँस / बुद्धिनाथ मिश्र

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जंगल की हिरनी नमस्कार ।
आँगन की बकरी नमस्कार ।
मेरा मन ब्याधा बेचारा
दोनों तीरों का है शिकार ।

वह पानी, फूटा जो सहस्रधारा बन
कितना है शीतल !
लेकिन जब प्यास लगी, तब
आया पास यही वापी का जल ।
जो प्यास जगाए, उसकी भी
जो प्यास बुझाए, उसकी भी
दोनों पानी की अनुकम्पा की
मुझको है सहनी पड़ी मार ।

कहने को अपने पास सभी
नौलखा हवेली में लेकिन
वह मलयानिल का स्पर्श कहाँ
जो कर डाले निर्मल तन-मन ।
कुछ लाल कनेर सरीखे सपने
लेकर अपनी झोली में
लुट जाने की ले साध
फिरा करता हाटों में यह गँवार ।

वह शख़्स यही था जिस पर
नामी फूलों का जादू न चला
पर्वत पर खिला बुराँस देखते ही
जाने कैसे मचला ।
चट्टानों की बातें सहना
टकराना चाँद-सितारों से
जीवन में इसके सिवा और
क्या पाया अपना देवदार ?