भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
दिन फागुन के / बुद्धिनाथ मिश्र
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 22:30, 16 जुलाई 2014 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=बुद्धिनाथ मिश्र |अनुवादक= |संग्रह...' के साथ नया पन्ना बनाया)
फागुन के दिन बौराने लगे
फागुन के ।
दबे पाँव आकर सिरहाने
हवा लगी बाँसुरी बजाने
दुखता सिर सहलाने लगे
फागुन के ।
रंग-बिरंगा रूप सलोना
कर जाता दरपन पर टोना
सुलझा मन उलझाने लगे
फागुन के ।
रति-सी लाज घोल तालों में
अँगड़ाई लिपटी डालों में
जलपाखी अलसाने लगे
फागुन के ।
ताम्रपत्र अमराई बाँचे
सुधि-सुगंध भर रही कुलाँचें
टेसू प्यार जताने लगे
फागुन के ।
उमगी-उमगी नदी फिरेगी
अंग-अंग सौगन्ध भरेगी
आना, जब दुबराने लगे
फागुन के ।