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आकाश सारा / बुद्धिनाथ मिश्र

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कल अधूरा ही रहा परिचय हमारा ।
आज मन का खोल दो आकाश सारा ।

मैं नहीं हूँ जानता, आखिर तुम्हारे
पास ले आईं मुझे किसकी दुआएँ !
दूर जितना जो रहा, उतना बिंधा वह
रूप से, साक्षी अजन्ता की गुफ़ाएँ ।

मैं तुम्हारे साथ मृमजल ढूँढ़ लूँगा
छोड़ पीछे रेत बनता सिन्धु खारा ।

यह असम्भव, फूल का मौसम भिगोए
और भीगे सिर्फ़ मेरा मन अकेला
बौरते हैं संग सारे वृक्ष जग के
जब कभी ऋतु की हुई शृंगार-बेला ।

फिर समझ लूँ क्यों न, मैं जो चाहता हूँ
चाहता है वही अन्तर्मन तुम्हारा !

क्या ज़रूरी है कि सारी बात कह दूँ
शब्द में ही, फिर नयन ये क्या करेंगे ?
काँपते हाथों धरूँ आँचल तुम्हारा
तो मनोरथ के पवन वे क्या करेंगें ?

आज परतें तोड़ खुलकर संग जी लें
सोचकर शायद न हो मिलना दुबारा ।