वक़्त / बुद्धिनाथ मिश्र
वक़्त कभी माटी का, वक़्त कभी सोने का
पर न किसी हालत में यह अपना होने का ।
मिट्टी के बने महल, मिट्टी में मिले महल
खो गई खण्डहरों में वैभव की चहल-पहल ।
बाज बहादुर राजा, रानी वह रूपमती
दोनों को अंक में समेट सो रही धरती ।
रटते हैं तोते इतिहास की छड़ी से डर
लेकिन यह सबक कभी याद नहीं होने का ।
सागर के तट बनते दम्भ के घरौंदे ये
ज्वार के थपेड़ों से टूट बिखर जाएँगे
टूटेगा नहीं मगर सिलसिला विचारों का
लहरों के गीत समय-शंख गुनगुनाएँगे ।
चलने पर संग चला सिर पर नभ का चन्दा
थमने पर ठिठका है पाँव मिरगछौने का ।
बाँध लिया शब्दों की मुट्ठी में दुनिया को
द्वार ही न मिला मुक्ति का जिसको मांगे से
सोने की ढाल और रत्न जड़ी तलवारें
हारती रही कुम्हार के कर के धागे से ।
सीखा यों हमने फन सावन की बदली में
फागुन के रंग और नूर को पिरोने का ।