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जनता कहती / बुद्धिनाथ मिश्र

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संसद है अय्याशों का घर, जनता कहती ।
इसमें रहते तीनों बन्दर, जनता कहती ।

लोकतन्त्र हो गया तमाशा पैसे का है
उजले पैसे पर हावी है काला पैसा
सदाचार की बस्ती हाहाकर मचा है
रौंद रहा सबको सत्ता का अन्धा भैंसा ।

पाण्डुरोग से ग्रस्त तरुण भारत के ख़ातिर
वादों का है जन्तर-मन्तर, जनता कहती ।

राजे गए, गए रजवाड़े संग समय के
जिसके सिर सौ-सौ हत्याएँ, वह आया है
पाँच टके में भी पण्डित की पूछ नहीं है
बिकें करोड़ों में नर-पशु, कैसी माया है ।

पक्षी और विपक्षी हैं मौसेरे भाई
दोनों हो गए साँप-छछुन्दर, जनता कहती ।

भारत के सिरमौर विधायक, सांसद, मंत्री
मेहतर पूरा देश-ढो रहा सिर पर मैला
काटें किसे, किसे रहने दें, प्रश्न कठिन है
पूरे तन में कदाचार का कैंसर फैला ।

भैंस चराने वाले उड़ते आसमान में
बोधिसत्व रह गए निरक्षर, जनता कहती ।