भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
मुहरबन्द हैं गीत / महेश अनघ
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 04:33, 20 जुलाई 2014 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=महेश अनघ |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCatNavgeet}}...' के साथ नया पन्ना बनाया)
मुहरबन्द हैं गीत
खोलना दो हज़ार सत्तर में ।
जब पानी चुक जाए
धरती सागर आँखों का
बोझ उठाए नहीं उठे
पक्षी से पाँखो का
नानी का बटुआ
टटोलना दो हज़ार सत्तर में ।
इसमें विपुल वितान तना है
माँ के आँचल का
सारी अला-बला का मंतर
टीका काजल का
नौ लख डालर संग
तोलना दो हज़ार सत्तर में ।
छूटी आस जुडाएगी
यह टूटी हुई क़सम
मन के मैले घावों को
यह रामबाण मरहम
मिल जाए तो शहद
घोलना दो हज़ार सत्तर में ।