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इण्डिविजुअलिटी / शहनाज़ इमरानी
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कभी लगता है ख़ुद को दोहरा रही हूँ
बार-बार वैसी ही बातें
नये तरीकों से ख़ुद को कहते हुए
लिखने के दरमियान
क्या है जो लफ़्ज़ों के पीछे छुप गया है
या जान-बूझकर नहीं लिखा
या ख़ुद को बचाए रखने की चालाकियाँ
छोटे-छोटे टुकड़ों में बाँट कर जीना
मैं जो हूं उसमें मेरा अपना होना कितना
पूरे होने की ख़्वाहिश लिये फिर भी अधूरे
अन्दर की तहों में छुपी रौशनी
आँच जो अन्दर कहीं जलती है
इसमें बहुत-सी सम्भावनाएँ हैं जीने की
सबकी अपनी इण्डिविजुअलिटी है
दूसरे की तरह होने से इंकार ज़रूरी है