भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
सुनो इस हवा को / दिलीप चित्रे
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 20:58, 21 जुलाई 2014 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=दिलीप चित्रे |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KK...' के साथ नया पन्ना बनाया)
सुनो इस हवा को
हवा के विशाल पारदर्शी घोड़े पर सवार
आग के कलेजे में
हवाओं के चारों खुर गाड़ता
वह आ गया है
पहाड़ पर
पृथ्वी
सिर्फ़ एक क्षण की
विराम स्थली है उसकी
जिसे कोई पानी प्रतिबिम्बित नहीं करता
जिसे कोई आँख नहीं देख पाती
और जिसकी उपस्थिति
पर्वत-सी पतली है ।
सुनो इस हवा को !
यह पहाड़ के
उन्मत्त आनन्द में उठे
एक पंख की फड़फड़ाहट है ।