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तीव्र नीली कोलम सिम्फ़नी-2 / दिलीप चित्रे

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लहरें, लहरें, लहरें
लहरें सब की हर तरफ़
केन्द्र ओझल

बुझी हुई आग का पानी कहाँ है
धूसर यादों के मोती कहाँ है
मृत झीलें, अन्धी और देखती हुई
पानी की सतह पर रंग सोए हुए
उस जगह जिसका कोई नाम नहीं है
अक्षरहीन रात में तारों के पार तुम
यादों के रेशे
उल्लसित और उद्दीप्त भूलेपन में
मैनें क्षणों की गोलाई, उनके घुमाव को देखा
अन्तिम कुछ सुरों की मिटती तरंगों में
झुकते आकाश, अलग होते, खोलते हुए
स्वर्ग का संगीत
उसके चमकते ज्योतिपुँज को
गुम होते हुए अन्धेरों में देखा
फिर तब सफ़ेद गुलाब की ख़ुशबू
और पलक पंखुरी की नीली आग पर ओस का उदास प्रतिबिम्ब
चर्मबद्ध मैं, छद्म पाया गया
जागृति के अगले ही क्षण में
ढलती नींद की लहर ने
ला छोड़ा मुझे नींद के किनारों पर