गुजरात का बलात्कार / दिलीप चित्रे / असद ज़ैदी
ग़ुलाम मोहम्मद शेख़, तैयब मेहता और अकबर पदमसी के लिए एक कविता-रूपी म्यूरल
नहीं, यह बम्बई में बनी किसी मुस्लिम सोशल पिक्चर में
शिफ़ॉन का पर्दा सरका कर झाँकता कोई रूमानी गुलाब नहीं
जहाँ हर दृश्य में होती है काली रेशम और मख़मल की सरसराहट
और ग़म सितार के तार छेड़ता है
यह तो भय से काँपती नग्न देह से फाड़कर उतारे जाते सारे आवरण हैं
नहीं, यह लरज़ते जज़्बात और एन्द्रिकता से लबालब
इन्तज़ार की चाशनी में जन्मा रहस्यमय बिम्ब नहीं
आघात की गहरी सतहों पर कुलबुलाता, छेड़ा गया, कुरेदा गया, कोंचा गया,
बलात्कृत, चीर डाला गया, क़त्लों में बदल दिया गया, रेशा-रेशा किया गया
योनि तक कुचल डाला गया इंसानी जिस्म है
जिसे सब सूँघ सकें पर कोई बतला न सके
जिसे आग में झोंक दिया गया ताकि उठे वह जाना-पहचाना धुआँ
कोई माँ, कोई बेटी, कोई बीवी, कोई प्रेमिका, कोई दोस्त सुरक्षित नहीं है
ये मादरचोद बना रहे हैं भगवा, काले और हरे रंग से एक उत्पाती तस्वीर
ऊँचे और मध्यवर्गीय घरों से निकलकर आए,
फ़रसान का नाश्ता करने वाले, पूजा से पहले पादने वाले
हर भड़कीले मन्दिर में पीतल की घण्टियाँ और
श्रद्धा के घड़ियाल बजाने वाले
मोबाइल सम्भाले, डिस्कमैन पर संगीत सुनते,
उम्दा शहरी कारें चलाते, 90 से ज़्यादा चैनलों का लुत्फ़ लेते
ये भावुक होना चाहते हैं तो व्हिस्की पीते हैं
नरक से आए उपदेशकों के सामने नतमस्तक होकर देते हैं दान
ये हमारे ही परिवार के हैं, हमारे ही दोस्त,
हमारे बग़ल वाले पड़ोसी जिनसे हम दही माँग लेते हैं
जो सँक्राँति के दिन पतंग उड़ाते हैं,
दिवाली पर और क्रिकेट में जीत पर पटाखे फोड़ते हैं
जिनके साथ हम पिकनिक पर जाते हैं, सिनेमा देखते हैं,
जो हमें बैठे दिखते हैं हमारे पसन्दीदा रेस्तराओं में
जिनकी तीन पीढ़ियाँ 1947 के बाद से ही ये मंसूबे बनाती आई हैं
और अब मौजूद है चौथी पीढ़ी
लेकर अपने अतुलनीय उदात्त का ठोस पाठ जिसका आप कूटवाचन कर सकें
साबरमती के तट पर बैठकर जहाँ
बापू बच्चों और बकरियों से खेला करते थे दो आज़ादियों के बीच