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इस दफ़े होली में / महाभूत चन्दन राय

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इस दफ़े होली में रंग से महज सरोबार नहीं थी केवल मेरी देह
मेरी पिचकारियाँ गुब्बारे और मेरी हथेलियाँ...
इस दफ़े होली के रंग में मेरी आंखों में भी रंग सरोबार थे
इस दफ़े भीजी थी मेरी अन्तस-चेतना भी होली के गाढ़े-पक्के रंग में !
एक छत की मुण्डेर से पिचकारियों से फूटते रंग के फव्वारे
जब बेझिझक बेशर्त भिगोते थे दूसरे छत पर बैठी देह
तो ये देखकर भीजती थी मेरी आत्मा की अब भी बची हुई है सह्रदयता
आह किस तरह रंग दुनिया का भेद ख़त्म करते हैं

एक बिहारी किसी गढ़वाली के रंग में रंगा गढ़वाली हो गया था
तो एक गुजराती टोली बंगाल-रंग में रंगी बंगाली-टोल हो गया थी
एक मुसलमान जिस रंग में रंगा हिन्दू हो गया था
ठीक उसी रंग में एक हिन्दू हो गया था सिक्ख
इस दफे होली में रंग-बिहार था
रंग-गुजरात था रंग-हिन्दू था रंग-मुसलमान था
रंग रंग-भारत था चारो ओर !

आह रंग किस तरह सब बन्धन खोल देते हैं….
कोई भीज रहा था किसी की ज़िद के रंग में
कोई किसी के इश्क के रंग में भीगा था
किसी पर साया था अपनी आज़ादियों का रंग
तो किसी पर चढ़ा था अपनी ख़ुशियों का रंग
इस दफ़े बैरंग नहीं थी होली की बधाइयाँ
इस दफ़े रंग पक्के थे

तो इस दफ़े मेरे लिखने में भी रंग है
और मेरे कहने में भी रंग है
आप जब पढ़ें..
आप भी भीजे मेरे इसी शब्द-रंग में…
आपके पढ़ने में भी रंग हो….
’होली मुबारक’