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पूर्वा पर / सोम ठाकुर

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लोहे से झल गई सलाखें

पिघल गये घेरे बाँहों के ।


परत-दर-परत चढ़ते साये

कपड़ों भर तनी अर्गनी

नाप गई अमरूदी कोण

टूटी मुंडेर टिकी कोहनी


धूप-चाँदनी तो वक्तव्य हुए झूठे

छत की ख़ामोश सभाओं के ।


रेंग-रेंग जाती है कातर

फाइलों लदे हाथों पर

रहा सिर्फ़ इंतज़ार बस का

जल डूबे फुटपाथों पर


हर तो हैं कैद कतारों मे

बागी हैं पुरवा के झोंके ।