भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
शाम / उंगारेत्ती
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 11:57, 30 दिसम्बर 2007 का अवतरण (New page: {{KKGlobal}} {{KKAnooditRachna |रचनाकार=उंगारेत्ती |संग्रह=मत्स्य-परी का गीत / उंगारेत्ती }} [...)
|
शाम के तंग दर्रों के क़दमों में
बहता है वह
जैतून-वर्णी सोता
और पहुँचता है
उस भंगुर भुलक्कड़ आग तक ।
धुन्ध में सुनता हूँ अब मैं
झींगुरों और मेढ़कों को
जहाँ हौले-हौले
घासें काँपती हैं ।