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मुरझाए पाटल-सा / रमेश रंजक
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ख़त आया
लेकिन कुछ ऐसे आया
आषाढ़ माह के रीते बादल-सा
हर पँक्ति एक नश्तर-सा लगा गई
अधसोया-सा घायलपन जगा गई
कमज़ोर भरोसों पर
ऐसी गुज़री
हर शब्द आँख में फैला काजल-सा
चेतन जड़ता, गहरे में डुबो गई
कच्चे धागे में मोती पिरो गई
भोली सुधियों का
पागल अल्हड़पन
बदनाम हो गया मैले आँचल-सा
हर दिशा मुझे लगती सुलगी-सुलगी
हर बाट, वाटिका लगती ठगी-ठगी
गिरवी जैसे सब
घनी उदासी के
घर-द्वार लगा मुरझाए पाटल-सा