भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
सागर हो तो / रमेश रंजक
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 12:50, 14 अगस्त 2014 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रमेश रंजक |अनुवादक= |संग्रह=किरण क...' के साथ नया पन्ना बनाया)
सागर हो तो खुली भुजाओं का सत्कार करो
मेरे नमन, गीत हो जाएँ इतना प्यार करो
कितने सपनों से चौखट पर
मन का दिया धरा है
जीवन भर तक ज्योति जलेगी
इतना स्नेह भरा है
मेरे दीप-दान के दिन को तुम त्योहार करो
स्नेह बाढ़ के जल-सा उतरे
ऐसा कभी हुआ है ?
अगर स्नेह बिरवा है तो
मन उपवन का महुआ है
स्नेह, मधुर फलदायक इसको अंगीकार करो
भीतर की दीवारें टूटें
बाहर की चट्टानें
कजरीली आँखें पहनाएँ
गजरीली मुस्कानें
आँसू को उदार आँचल का साझीदार करो