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सारथी ! सुन / रमेश रंजक
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फिर नए आकार जनमें
गेह में, गिरि पर, चमन में
हर क़लम से पूछता हूँ कौन गाएगी प्रभाती ?
भूमि पर, मन पर, बदन पर
है अमावस का बसेरा
चन्द लोहे की छड़ों में
बन्द है युग का सवेरा
धूल कर निज स्वार्थ का गढ़
साधना-सोपान पर चढ़
कौन लिख पाया किसी उजली किरण को एक पाती ?
वन्दना ऐसी बुझी है
हर तरफ़ ग़म छा गया है
आरती जैसे उजाले की
अन्धेरा गा गया है
ओ ! समय के सारथी सुन
गुनगुना आलोक की धुन
कब तलक डूबी रहेगी द्वन्द्व में कमज़ोर बाती ?