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अप्रैल का गीत / रमेश रंजक
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पकी फ़सल के साथ पके दिन
क़लम और दवात के ।
धीरे-धीरे छूट गए दिन —
बातों की बरसात के ।।
मरे हुए ज़िन्दा हो बैठे
छोटे से इतिहास में
नदी पहाड़ों वाली दुनिया
आकर बैठी पास में
छोड़ शरारत रटो पहाड़े
चार पाँच छह सात के ।
धीरे-धीरे छूट गए दिन —
बातों की बरसात के ।।
जब लूडो की साँप-नसैनी
अँग्रेज़ी ने तोड़ दी
तब हिन्दी की बिन्दी ने
कैरम की क़िस्मत फोड़ दी
चहल-पहल के रंग उड़ गए
बिना बात की बात के
धीरे-धीरे छूट गए दिन —
बातों की बरसात के ।।
होली के पकवान पचाकर
बस्ता मोटा हो गया
हमको लगा कि जैसे अपना
आँगन छोटा हो गया
दुपहर के स्कूल हो गए
फिर से ठण्डी प्रात के ।
पकी क़लम के साथ पके दिन
क़लम और दवात के ।
धीरे-धीरे छूट गए दिन —
बातों की बरसात के ।।