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मूढ! केहि बल पर तू इतरात / हनुमानप्रसाद पोद्दार

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  (राग जोगिया-ताल दीपचन्दी)

 मूढ! केहि बलपर तू इतरात॥
 करत न सीधी बात काहु सौं, सदा रहत इठलात।
 जा दिन प्रान देह तजि जैहैं, को‌उ न पूछिहैं बात॥
 जेहि तनु के सुख-साज-सँवारन संतत सबहिं सतात।
 सो तनु सहज धूरि मिलि जैहै छार होहिं सब गात॥
 जेहि धन-संचै-हेतु भूलि हरि, डोलत सब दिन-रात।
 धरम-करम तजि सदा गीध ज्यों मांस हेतु ललचात॥
 सब सों रारि करत, नहिं मानत बंधु-पूज्य, पितु-मात।
 सो धन-सरबस एहि थल रहिहैं, संग न दमरी जात॥
 माल-मिलकियत सब रहि जैहैं, सबै टूटिहैं नात।
 सगे-सहोदर, पुत्र पाहुने, तजिहैं जननी-तात॥
 राम-नाम को जाप करत खल, पंचन माँहि लजात।
 ‘राम-नाम सत’-सबै बोलिहैं तोहि मसानु लै जात॥
 रात-दिवस भटकत केहि कारन, नहिं कछु भेद लखात।
 भूलि भगत-वत्सल भगवानहिं नर-तनु बृथा-गँवात॥