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देख निज नित्य निकेतन द्वार / हनुमानप्रसाद पोद्दार

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 (राग केदारा-ताल तीन ताल)

 देख निज नित्य निकेतन द्वार॥
 भूला निज निर्मल स्वरूपको, भूला कुल-व्यवहार।
 फ़ूला, फ़ँसा फिर रहा संतत, सहता जग फटकार॥
 पर-पुर, पर-घरमें प्रवेश कर, पाला पर-परिवार।
 पड़ा पाँच चोरोंके पल्ले, लुटा, हु‌आ लाचार॥
 अब भी चेत, ग्रहण कर सत्पथ, तज माया-‌आगार।
 उज्ज्वल प्रेम-प्रकाश साथ ले, चल निज गृह सुख-सार॥
 शम-दमादिसे तुरत निधनकर काम-क्रोध-बटमार।
 सेवन कर पुनीत सत-संगति पथशाला श्रमहार॥
 श्रीहरिनाम शमन भय-नाशक निर्भय नित्य पुकार।
 पातक-पुञ्ज नाश हों सुनकर ‘हरि हरि हरि’ हुंकार॥
 आश्रयकर, शरणागत-वत्सल प्रभु-पद-कमल उदार।
 निज घर पहुँच, नित्य चिन्मय बन, भूमानन्द अपार॥