भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

पूरी हो सर्वत्र सर्वथा, स्वामी! / हनुमानप्रसाद पोद्दार

Kavita Kosh से
Gayatri Gupta (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 15:16, 21 अगस्त 2014 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=हनुमानप्रसाद पोद्दार |अनुवादक= |स...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

 (राग भीमपलासी-ताल कहरवा)

 पूरी हो सर्वत्र सर्वथा, स्वामी! सदा तुहारी चाह।
 मेरे मनमें उठे न को‌ई, इसके सिवा दूसरी चाह॥
 उठे कदाचित्‌‌ तो मालिक! तुम मत पूरी करना वह चाह।
 अपने मनकी ही करना, मत मेरी करना कुञ्छ परवाह॥
 तुम हो सुहृद्‌‌ अकारण प्रेमी, तुम सर्वज्ञ, सदा अभ्रान्त।
 तुम सब लोक-महेश्वर हो, भगवान! तुहारे आदि न अन्त॥
 करते और करोगे जो कुछ तुम, प्रभु! मेरे लिये विधान।
 पूर्णरूपसे निश्चय ही उसमें होगा मेरा कल्यान॥