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मुखौटा लेकर / महेश उपाध्याय

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दुख ने एक मुखौटा लेकर
             जीना चाहा था
लम्बे नाख़ूनों से ये सब
              देखा नहीं गया

आदमखोर शेर
बस्ती में
छोड़ गए —
उनको पता नहीं
कितनों को
तोड़ गए

एक जून रोटी ने
पानी पीना चाह था
कुछ अफ़लातूनों से ये भी
             देखा नहीं गया ।